संगीत गुरु-शिष्य परंपरा का अनूठा उदाहरण, जो भेदभाव करे वो गुरु हो ही नहीं सकता - Web India Live

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संगीत गुरु-शिष्य परंपरा का अनूठा उदाहरण, जो भेदभाव करे वो गुरु हो ही नहीं सकता


भोपाल। हमारे पिता ने हमारे पहले गुरु रहे। पिता अफजल हुसैन गजल और ठुमरी गायक थे, तो बचपन से ही घर में संगीत का माहौल था। मां ने जब कहा कि बच्चों को भी संगीत सीखाओ तो पिता ने कहा, मैं उनका बेटा बनाकर नहीं सीखा सकता। इन्हें शिष्य बनकर दीक्षा लेनी होगी। पिताजी घर में खूब प्यार करते थे, लेकिन संगीत सिखाते समय बिल्कुल सख्त होते थे। छोटी सी गलत पर डांट पड़ती थी। उन्होंने कभी अपने शिष्यों में भेदभाव नहीं किया। आज हमारे बच्चे भी हमसे संगीत सीखते हैं तो गुरु-शिष्य परंपरा में। यह कहना था देश के ख्यात गजल गायक उस्ताद अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन का।
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फोटोकॉपी की मार्केट में कोई कीमत नहीं होती
उन्होंने कहा कि पिताजी ने हमें सिखाया कि गुरु से तालिम पूरी लो, लेकिन उनकी इल्म(विद्या) को अपनाना चाहिए। टोन नहीं आना चाहिए, वो आपका अपना ही होना चाहिए। यदि टोन अपना लोगे तो फोटोकॉपी बनकर रह जाओगे। फोटोकॉपी की मार्केट में कोई कीमत नहीं होती। हमारे गुरु कहते थे कि मैं चाहता हूं कि मैं तुम्हारी वजह से पहचाना जाऊं। उनका हमेशा कहना रहा कि जिंदगी चलाने के लिए पैसा कमाना जरूरी है पैसा बनाना नहीं।
हम दोनो भाई सीख तो साथ में रहे थे लेकिन पसंद अलग-अलग थी। एक दिन उन्होंने कहा कि तुम दोनों साथ ही गाओगे। गुरु के आदेश पर हमारी जोड़ी बनी थी। उस समय गुरु का आदेश ही सर्वोपरी होता था, उनकी आज्ञा के बाद ही मंच पर जा सकते थे। आजकल युवा रातों-रात स्टार बन जाना चाहते हैं। आज तो यह बात हो गई है कि वक्त से पहले नाम हो जाए तो कयामत है, के लोग नाखून से खोदे हैं चट्टानों में कुंआ...। आज युवा छोटी सी सफलता मिलने पर ही गुरु को भूल जाता है।
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भक्ति पद गाते थे, संस्कृत सीखी
उस्ताद अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन ने कहा कि संगीत की शिक्षा लेते हुए हमने संस्कृत सीखी। ये सभी भाषाओं की जननी है। हमने भक्ति संगीत भी गाया। इसके बाद कव्वाली और गजल गानें लगे। आज भाषाई घी-खिचडी हो गई है। इसकी जिम्मेदारी आप म्यूजिक कंपनी या गायक को नहीं दे सकते, श्रोता भी बड़ा जिम्मेदार है कि वो इसे नकारता नहीं है। शुद्धता इसलिए ही खत्म हुई है जिस चीज के बारे में जानते नहीं है, उसके विषय में बोलने लगते हैं।
उन्होंने कहा कि किसी भी भाषा या कला का स्वरूप बरकरार रहना चाहिए। भजन में भक्ति रस की झलक हो, जिसमें अल्लाह-रसूल की बात हो उसे हम सूफियाना कहते है, हालांकी सभी सूफी है। हर धर्म एक ही पैगाम देता है, प्रेम का। उन्होंने कहा कि खुद से चलकर नहीं ये तर्ज-ए-सुखन आया है, पांव उस्तादों के दाबें हैं तो फन आया है...। जब हम भजन गाएं तो भजन लगना चाहिए। ऐसा न हो कि भजन गाएं तो लगे कि गजल और गजल गाए तो भजन लगे।
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