आंकड़ों का घालमेल: MP में जैविक खेती का रकबा 6 लाख हेक्टेयर पर पंजीकृत किसानों की संख्या महज 650 दर्ज
भोपाल। जैविक खेती से जिस तरह मिट्टी की गुणवत्ता बरकरार रहती है, उसी तरह इससेे उगाए अन्न से शरीर भी स्वस्थ रहता है। इसके बावजूद यह आम लोगों की पहुंच से दूर है। प्रदेश के किसान जैविक खेती करना चाहते हैं, तभी तो सरकारी आंकड़ों में इसका रकबा छह लाख हेक्टेयर बताया जा रहा है, लेकिन हकीकत इससे परे है।
पूरे प्रदेश में 650 पंजीकृत किसान हैं, जो जैविक खेती करना चाहते हैं और छह लाख हेक्टेयर का रकबा भी इन्हीं किसानों की जमीनों का है। अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर कौन सी मजबूरी है जिससे ये किसान चाहकर भी जैविक खेती नहीं कर पा रहे हैं। ये आज भी प्रयोग के तौर पर जमीन के छोटे से टुकड़ों में ही जैविक खेती कर रहे हैं।
इससे समझिए क्यों है इसकी जरूरत?
1. देश-प्रदेश में जैविक उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ रही है। अनाज से लेकर सब्जियां और फलों की मांग भी खूब है। इधर, उत्पादन कम और मांग अधिक होने से इनकी कीमतों में काफी उछाल है। इससे कुछ खास लोग तो इसे खरीद ले रहे हैं, लेकिन आम लोगों की पहुंच से यह काफी दूर है।
2. प्रदेश में जैविक खेती का रकबा छह लाख हेक्टेयर बताया जा रहा है, लेकिन हकीकत में यह काफी कम है। दरअसल पहले तीन साल तक इसमें लागत अधिक और मुनाफा कम है। इस कारण किसान एक-दो साल में ही इस खेती से पीछे हट जाते हैं।
3. डॉक्टरों का कहना है कि जैविक खेती के उत्पाद घातक बीमारियों से भी बचा लेने में सक्षम हैं, इसके बाद भी शासन-प्रशासन की ओर से इस खेती को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है, जिससे किसान कुछ दिन खेती करके फिर रासायनिक खेती की तरफ ही रुख कर लेते हैं।
4. विशेषज्ञों और किसानों का कहना है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रदेश सरकार की नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। उसे सिक्किम और उत्तराखंड जैसी नीतियां बनानी होंगी। जैविक खेती को सर्टिफाइड करने वाली सरकारी एजेंसी के जिम्मेदारों को किसानों के बीच जाकर पंजीयन और प्रोत्साहित करना होगा।
विभाग का कागजी विजन
जैविक खेती के लिए प्रदेश सरकार ने मप्र राज्य जैविक प्रमाणीकरण संस्था को जिम्मा सौंप रखा है। उसकी वेबसाइट पर दावों की खेती लहलहा रही है।
इधर... जमीनी हकीकत
पत्रिका ने प्रदेशभर के कई किसानों से जैविक खेती के लिए अनुकूल नीतियों और माहौल को लेकर बात की तो पता चला कि भोपाल में मप्र राज्य जैविक प्रमाणीकरण संस्था से पंजीकरण कराना बेहद जटिल काम है। किसान संस्था की वेबसाइट से आवेदन की कॉपी निकालकर उसे भरकर राजधानी में संस्था के रचना नगर स्थित कार्यालय में जमा तो करवा देते हैं, लेकिन छह महीने बाद भी विशेषज्ञ प्रमाणीकरण की प्रक्रिया के तहत भौतिक सत्यापन के लिए नहीं पहुंचते हैं।
इससे शरीर बन रहा बीमारियों का घर
चिकित्सकों और आहार विशेषज्ञों का कहना है कि कैंसर के मरीजों का प्रतिशत दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही पेट संबंधी बीमारियां और त्वचा रोग भी खूब हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण अनाज, सब्जी और फलों के उत्पादन में पेस्टीसाइड और यूरिया का मानकों से अधिक इस्तेमाल करना है। इससे लोगों की इम्यूनिटी कमजोर हो गई है। मानसिक समस्याएं भी बढऩे लगी हैं। जीवनशैली आधारित बीमारियां मोटापा, ह्रदय रोग और मधुमेह आदि भी इसी खान-पान की देन है। आयुर्वेद के अनुसार, हम जितना कम से कम रासायनों का उपयोग करेंगे, उतना स्वस्थ रहेंगे।
किसानों को जानकारी का अभाव
किसान जैविक खेती तो करना चाहते हैं, लेकिन जानकारी के अभाव में कदम पीछे खींच लेते हैं। उन्हें इसका भी डर है कि फसल बेचने के लिए बाजार मिलेगा या नहीं। इसके लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- आनंद सिंह ठाकुर, जैविक प्रमुख, मालवा प्रांत
किसान अभी हिम्मत नहीं जुटा पाते
मप्र में पंजीकृत किसानों की संख्या 650 है, इस संख्या के आधार पर कैसे माना जाए कि छह लाख हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है। हकीकत यह है कि पंजीकृत किसान अभी भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि कुल जमीन पर जैविक खेती करने लगें।
- सर्वज्ञ दीवान, जैविक खेती के विशेषज्ञ और भारतीय किसान संघ के पदाधिकारी
सरकार नीति स्पष्ट कर इसे व्यावहारिक बनाए
खेती में इस्तेमाल किए जा रहे पेस्टीसाइड किसी न किसी रूप में ऐसे कैमिकल हैं, जो मानव शरीर के लिए बेहद घातक हैं। इससे उबरने के लिए सरकार को अपनी नीति स्पष्ट और व्यावहारिक बनानी होगी। इसमें किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करना भी जरूरी है।
- डॉ. तृप्ति जैन, आयुर्वेद आहार-विहार विशेषज्ञ
रकबा बढ़ेगा तो आम आदमी तक होगी पहुंच
भारतीय किसान संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख राघवेंद्र सिंह पटेल का कहना है कि किसान जब जैविक खेती की तरफ कदम बढ़ाते हैं तो पहले तीन वर्ष उनकी लागत बढ़ती है। ऐसे में सरकार को आर्थिक मदद के रूप में प्रति एकड़ के हिसाब से प्रोत्साहन राशि देनी चाहिए। मप्र राज्य जैविक प्रमाणीकरण संस्था भी तीन साल तक निगरानी रखती है, उसके बाद ही किसान के खेत और उत्पाद को प्रमाणित किया जाता है। इस प्रक्रिया का दूसरा फायदा यह होगा ज्यादा से ज्यादा किसान जैविक खेती करने लगेंगे, प्रदेश में रकबा तेजी से बढ़ेगा। उत्पादन बढ़ेगा तो आम उपभोक्ता को भी सामान्य कीमत पर जैविक अनाज, दलहन, तिलहन, फल और सब्जियां मिलने लगेंगी।
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