डिफॉल्टर कंपनी में 111 करोड़ रुपए जमा करने के मामले में EOW ने दर्ज की एफआईआर

भोपाल/ भोपाल को-ऑपरेटिव सेंट्रल बैंक लि. के तत्कालीन प्रबंधक व उपायुक्त आरएस विश्वकर्मा द्वारा 111.29 करोड़ रुपए डिफॉल्टर कंपनी इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेस लि. (आईएल एंड एफएल) में निवेश करने के मामले में ईओडब्ल्यू ने एफआईआर दर्ज कर ली है। शासन ने इस मामले की जांच करने के बाद ईओडब्ल्यू को यह मामला सौंपा गया था, इसके बाद करीब दो महीने की जांच के बाद जांच एजेंसी ने मामले में केस दर्ज कर लिया। अब इसकी जांच कर कार्रवाई की जाएगी।
बताया जा रहा है कि ईओडब्ल्यू अपनी जांच रिपोर्ट भी सहकारिता विभाग को सौंपेगा, ताकि आोपियों के खिलाफ कार्रवाई की जा सके। आरोप है कि तत्कालीन एमडी व उपायुक्त विश्वकर्मा, सुभाष शर्मा शाखा प्रबंधक और आरएस सूद सीए ने 9,16, 26 अप्रेल और 7 जून 2018 को डिफॉल्टर कंपनी में 111.29 करोड़ रुपए जमा कर दिए, जो अब डूबत में चले गए हैंं। इससे बैंक को 111.29 करोड़ रुपए के साथ इस राशि से मिलने वाला ब्याज मिलाकर करीब 118 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
जांच में पाया गया है कि निवेश की गई रकम वापस मिलने की संभावना कम है। आईएल एंड एफएल कंपनी दिवालिया हो चुकी है। इधर, इस विषय पर वर्तमान बैंक अधिकारियों का तर्क है कि बैंक हित में निर्णय लिया गया था, लेकिन इसकी व्याख्या गलत तरीके से की जा रही है।
सेबी ने जिस कंपनी को 5 सितारा रेटिंग दी थी और वह कंपनी 9.25 से 9.50 फीसदी तक ब्याज दे रहा था, इसलिए पैसा निवेश किया गया है। अधिकारियों का यह भी तर्क है कि इस कंपनी में एलआईसी ऑफ इंडिया, एसबीआई के करीब 30 हजार करोड़, अमूल इंडिया के करोड़ों, मदर डेरी के अरबों और मप्र की बिजली कंपनियों ने करोड़ों रुपए निवेश कर रखा है। यह सब सेबी की रेटिंग और अधिक ब्याज हासिल करने के कारण किया गया है, इसमें बैंक की गलती नहीं है।
कंपनी ने भेजा पत्र
बैंक अधिकारियों ने नाम न छापने के अनुरोध पर पत्रिका को बताया है कि आईएल एंड एफएल कंपनी ने हाल ही में एक पत्र भेजकर कहा है कि मार्च 2020 के पहले 15 फीसदी राशि लौटा दी जाएगी। इस पर बैंक प्रबंधन ने आईएल एंड एफएल से कहा है कि यह बात बैंक को सीधे कहने के बजाय नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में कहे। ज्ञात हो कि यह मामला अब एनसीएलटी में विचाराधीन है।
होगी ठोस कार्रवाई
आरोपी अधिकारियों से शासन रिकवरी कर सकती है। इसकी अनुशंसा भी की जा रही है। लेकिन इसमें सबसे बड़ी अड़चन यह आ सकती है कि तत्कालीन आरोपी अधिकारियों का पूरे सेवाकाल का वेतन-भत्ता मिला लिया जाए तो भी इतनी बड़ी राशि नहीं होती है, ऐसे में वसूली अटक सकती है। लेकिन जिम्मेदारों पर ठोस कार्रवाई हो सकती है।
संचालक मंडल को रखा ताक पर
ईओडब्ल्यू की जांच में सामने आया है कि तत्कालीन अधिकारियों ने संचालक मंडल से भी अनुमोदन नहीं लिया गया है। न ही सहकारी बैंकिंग बॉयलॉज-नियमों का पालन किया। नियमानुसार सरकारी अथवा निजी बैंकों में पैसे निवेश करने का प्रावधान है, लेकिन तत्कालीन अधिकारियों ने एक डिफॉल्टर नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनी (एनबीएफसी) में यह पैसा जमा कर दिया। इनके खिलाफ आईपीसी की धारा 49, 120बी, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया है।
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